आज का आम इंसान, जैसे बिना पर का परिंदा है
पर उसको ये तसल्ली है कि वो अभी तक जिंदा है
हड़तालों की बाढ़ देखकर, बस यही ख्याल आता है
देखो कैसे तुरत-फुरत मालिक बनने चला कारिंदा है
वक़्त ने इतना मौकापरस्त, बना दिया है इंसान को
कि दरख्तों को आग लगा रहा जंगल का बाशिंदा है
देश को तोड़ने की कवायद में, जुटे हुए हैं लाखों हाथ
मगर देश जोड़ने की बात करने वाले नेता चुनिंदा है
इस संकट की घडी में भी, समाज क्यूँ नहीं चेत रहा
जिसको देखो हर कोई आँखें मलता हुआ उनींदा है
एकता एवं धर्मनिरपेक्षता, जैसे शब्द बेमानी लगते हैं
जहाँ हरेक पडोसी दूसरे की हर समय करता निंदा है
जिस राष्ट्र-निर्माण के लिए, शहीदों ने कुर्बानियां दी हैं
वो सब भी इस राष्ट्र के वर्तमान हालात पर शर्मिंदा हैं
कोई 'रोहित' को बताये, कौन है दुर्दशा का जिम्मेदार
क्यूंकि जवाब नाकाफी है लेकिन सवालों का पुलिंदा है
Friday, July 16, 2010
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